नागरिकता संसोधन विधेयक (CAB) के बाद, अब क्या?

नागरिकता संसोधन विधेयक (CAB) के बाद, अब क्या?
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AshishUrmaliya || Pratinidhi Manthan

नागरिकतासंसोधन बिल लागू होने के बाद अब केंद्र सरकार का अगला और मुख्य लक्ष्य देशभर में नेशनलरजिस्टर ऑफ़ सिटीजनशिप (NRC) लागू करवाना होगा। लेकिन उसके बाद क्या?

मोदीसरकार 2.0 ने अपने 7 महीने पूरे कर लिए हैं। इसी के साथ सरकार ने चुनाव के वक्त अपनेमेनिफेस्टो में लिखे 4 बड़े वादों को भी पूरा कर दिया है।

–तीन तलाक

–धारा 370

–राम मंदिर

–नागरिकता संसोधन विधेयक  

ये7 महीने बहुत ही गरम रहे। सबसे ज्यादा गर्माहट की अटकलें राम मंदिर के फैसले पर लगाईजा रहीं थीं, लेकिन इसके उलट सबसे ज्यादा गर्माहट नागरिकता संसोधन विधेयक 2019 के पासहोने के दौरान और उसके बाद दिखाई दी। उत्तर-पूर्वी राज्यों में इस विधेयक के खिलाफजिस कदर का विरोध प्रदर्शन हुआ उसने देशभर में गर्माहट पैदा कर दी। अब NRC लागू होगायह गर्माहट और भी ज्यादा बढ़ बढ़ने की प्रबल संभावनाएं हैं।

सोशलमीडिया पर स्क्रॉल करते हुए मेरी नजर एक पोस्ट पर गई जिस पर लिखा हुआ था, कि हिन्दू-मुस्लिमसे जुड़ा एक मसला ख़त्म नहीं होता बीजेपी दूसरा लेकर सामने रख देती है। लोगों का ध्यानअसल मुद्दों जैसे- महंगाई, बेरोजगारी, अर्थव्यवस्था से हटाने के लिए दोनों धर्मों कापालन करने वाले लोगों के सामने कोई न कोई नया मुद्दा जैसे- 370, तीन तलाक, राम मंदिरऔर अब ये सिटीजनशिप अमेंडमेंट बिल, NRC आदि लाकर रख देती है।  

यहपढ़कर दो मिनट के लिए मुझे लगा, कि बात तो सही है यार. फिर मैनें अपने विवेक का उपयोगकरते हुए 2 मिनट और सोचा तब मुझे एहसास हुआ कि यह तो राजनीति से प्रेरित पोस्ट है।अनुरोध- यहां में एक निष्पक्ष पत्रकार की हैसियत से अपनी बात रखने जा रहा हूँ, मुझेसरकार का पक्षधर बिलकुल भी न समझें। आजकल निष्पक्ष पत्रकारों को ये लाइन पहले से लिखनीजरूरी हो गई है।

जबएक सरकार बनती है, तो वह अलग-अलग मंत्रालयों का गठन करती है। जैसे- गृह मंत्रालय, वित्तमंत्रालय, रक्षा मंत्रालय, विदेश मंत्रालय आदि। ये सभी मंत्रालय अपना-अपना काम करतेहैं। कोई बड़ा विषय हुआ तो प्रधानमंत्री से सलाह-मसविरा किया जाता है।कितनी साधारण सीबात है। अमित शाह केंद्रीय गृह मंत्री हैं और ये सभी बड़े मुद्दों से जुड़े बिल वही पेशकर रहे हैं। स्वाभाविक सी बात है, बड़े मुद्दे हैं तो प्रधानमंत्री से भी सलाह-मसविराकरते होंगे।

अबबात आती है, कि जब चुनाव के वक्त भारतीय जनता पार्टी ने अपना मेनिफेस्टो जारी कियाथा, तब उसमें इन सभी मुद्दों का जिक्र किया गया था। उस मेनिफेस्टों को देखने के बादही लोगों ने वोट किया और दूसरी बार भारतीय जनता पार्टी को अपार बहुमत दिया। अब जो भीवादे पूरे हो रहे हैं उसमें विवाद कैसा? विरोध बनता है, जरूरी भी है एक लोकतंत्र मेंविपक्ष का मजबूत होना बहुत जरूरी होता है और हर एक मुद्दे पर सरकार से कड़े प्रश्न करनाभी जरूरी होता है। मोदी सरकार 1.0 में विपक्ष बहुत ही कमजोर दिखाई दिया लेकिन अब विपक्षपहले से काफी मजबूत दिखाई दे रहा है। लेकिन सवाल यह है कि धर्म की राजनाति कब तक?

दूसरा लांछन- सरकार असल मुद्दों से ध्यान भटका रही है।

तोमेरा सवाल है ध्यान भटक किसका रहा है? आपका, हमारा, जिसका भी भटक रहा है वो अपना ध्यानभटकने ही क्यों दे रहा है। वह व्यक्ति अपने महंगाई, बेरोजगारी, अर्थव्यवस्था जैसे मुद्दोंपर अडिग क्यों नहीं है। जो बातें मेनिफेस्टों में लिखी थी उनको पूरा करते वक्त सरकारका विरोध करने की बजाय विपक्ष इन मुद्दों पर सरकार को संसद में क्यों नहीं घेर रहा।बेरोजगारी लगातार बढ़ रही है, अर्थव्यवस्था हिली हुई है। गृह मंत्री अपना काम कर रहाहै। वित्त मंत्री, श्रम रोजगार मंत्री क्या कर रहे हैं? हम अपना ध्यान क्यों भटका रहेहैं? सरकार के ध्यान भटकाने वाले फॉर्मूले को हम सफल क्यों होने दे रहे हैं? क्योंकिविपक्षियों को देश से कोई मतलब नहीं, उन्हें सत्ता से मतलब है।

खैर,ये राजनीति है और इसमें सब जायज़ है फिर चाहे दंगे ही क्यों न भड़कवाने पड़ें। हमारा विषयथा, कि इन सब बड़े मुद्दों को निपटाने के बाद अमित शाह का अगला कदम क्या होगा? क्यावे फिर से धर्म को बीच में रखकर कोई नया फैसला लेंगे? तो आइये जानने की कोशिश करतेहैं, कि अब आगे क्या हो सकता है।

जीहां, इस मामले में भी धर्म बीच में आएगा और जितना धर्म इस मुद्दे में आने वाला है उतनाकिसी भी मुद्दे में अब तक नहीं आया। साथ ही इसमें संविधान की अवहेलना भी होगी। क्योंकिइसमें सिर्फ हिन्दू- मुसलमान नहीं होने वाला इसमें सभी धर्म निकलकर सामने आएंगे। यहमुद्दा है- समान नागरिक संहिता।

तो आइये समान नागरिक संहिता (Uniform Civil Code) को पूरी तरह से समझने की कोशिश करते हैं।

सामाननागरिक संहिता का मतलब भारत के सभी नागरिकों के लिए एक सामान कानून होने से है, चाहेवह नागरिक किसी भी धर्म, जाति, समुदाय का क्यों न हो। यही नहीं चाहे वह महिला हो पुरुषहो या फिर बच्चा सबको एक सामान अधिकार। इस संहिता के अंतर्गत शादी-विवाह हो, तलाक हो,जमीन जायदाद का बंटवारा हो, सभी मामलों के लिए एक ही कानून होगा। कुल मिला कर कह लेंतो सामान नागरिक संहिता एक निष्पक्ष कानून है जिसका किसी भी धर्म से कोई ताल्लुक नहींहोता। अब आपको यह पढ़ कर लग रहा होगा कि ये तो बहुत बढ़िया बात है लेकिन मैं आपको बतादूं, इसमें विडंबनाएं भी बहुत हैं। इसके पक्षधर भी बहुत हैं और विपक्षी भी। 

आगे बढ़ें, उससे पहले इसके अतीत पर नजर डाल लेते हैं कि आखिर ये आया कहां से?

एकदेश, एक कानून यानी सामान नागरिक संहिता का जिक्र संविधान के 'अनुच्छेद 44' में मिलताहै। इसमें लिखा है, "राज्य का कर्त्तव्य है कि भारत के सभी नागरिकों के लिए एकसामान कानून बनाये।"

साल1840 में जब यहां ब्रिटिश शासन हुआ करता था, तब उन्होंने 'लेक्स लूसी' रिपोर्ट के आधारपर अपराधों, सबूतों और अनुबंधों के लिए एकसमान कानून का निर्माण किया था। लेकिन उसवक्त जानबूझकर उन्होंने हिन्दू और मुसलमानों के कुछ निजी कानूनों को छोड़ दिया था। वहीँदूसरी ओर ब्रिटिश भारतीय न्यायपालिका ने हिन्दू और मुस्लिमों को अंग्रेजी कानून केतहत ब्रिटिश न्यायाधीशों द्वारा आवेदन करने की सुविधा प्रदान की थी। इसके साथ ही उसीवक्त भारत के विभिन्न समाज सुधारक सती प्रथा एवं अन्य रीति रिवाजों के चलते माहिलाओंके ऊपर हो रहे भेदभाव और अत्याचारों को समाप्त करने की दिशा में आवाज बुलंद कर रहेथे। ये सब चलता रहा।

फिरवक्त आया 1940 का, एक सदी बीत चुकी थी। इस दशक में संविधान सभा का गठन किया गया। जहांएक ओर सामान नागरिक संहिता अपनाकर समाज सुधार चाहने वाले डॉ. भीम राव जैसे लोग थे वहीदूसरी ओर धार्मिक रीति-रिवाजों पर आधारित निजी कानूनों के पक्षधर मुस्लिम प्रतिनिधिभी थे। उस वक्त भारत के अल्पसंख्यक समुदायों द्वारा संविधान सभा में सामान नागरिक संहिताका विरोध किया गया था। सिर्फ इसी विरोध के चलते भारतीय संविधान के IV भाग में सामाननागरिक संहिता से संबंधित एक ही लाइन को जोड़ा गया। वो लाइन मैं आपको ऊपर भी बता चुकाहूं, फिर से दोहरा देता हूं, "राज्य भारत के राज्यक्षेत्र के अंतर्गत निवास करनेवाले सभी नागरिकों को सुरक्षित करने के लिए एकसमान नागरिक संहिता लागू करने का प्रयासकरेगा|" क्योंकि यह संहिता सिर्फ राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों के रूप में शामिलकी गई थी इसलिए इस कानून को अदालत द्वारा लागू नहीं किया जा सका।

इसकेबाद से लेकर अब तक राजनीतिक विसंगति के चलते किसी भी सरकार ने इसे लागू करने की इच्छाशक्तिनहीं दिखाई। देश के अल्पसंख्यकों, मुख्य रूप से मुस्लिमों का ऐसा मानना था, कि यह संहिताउनके व्यक्तिगत कानूनों का उल्लंधन करेगी। इसलिए फिर मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने साल1937 में निकाह, तलाक और उत्तराधिकार पर जो पारिवारिक कानून बनाए थे, वह आज भी अमलमें आ रहे हैं जिन्हें बदलने के लिए मुस्लिम महिलाएं एवं प्रगतिशील तबका बेचैन है।अल्पसंख्यकों के साथ हिन्दुओं के कानूनों को भी संकलित करने के लिए हिन्दू विवाह अधिनियम1955, हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम 1956, हिन्दू अल्पसंख्यक और संरक्षकता अधिनियम1956, और हिन्दू दत्तक ग्रहण और रखरखाव अधिनियम 1956 जैसे विधेयकों को पारित किया गयाथा जिसे सामूहिक रूप से हिन्दू कोड बिल के नाम से जाना जाता है|

इससंहिता में बदलाव करते हुए बौद्ध, सिख, जैन, पारसी, ईसाईयों के साथ के साथ ही हिन्दुओंके विभिन्न सम्प्रदाय संबंधित कानूनों को शामिल कर लिया गया। इसके अंतर्गत महिलाओंको तलाक और उत्तराधिकार के अधिकार भी दिए गए साथ ही शादी के लिए जाती को अप्रासंगिकबताया गया। बहुविवाह और द्विविवाह के अधिकार को ख़त्म कर दिया गया। 

वर्तमान स्थिति- 

इससंहिता के मुद्दे पर आज हमारा देश चार शब्दों- राजनीति, धर्म, सामाजिक और लिंग के आधारपर दो श्रेणियों में बंटा हुआ है। एक श्रेणी चाहती है कि यह बिल जल्द से जल्द लागूहो जाये और जो दूसरी श्रेणी है वह इस बिल को हरगिज लागू नहीं होने देना चाहती।

–राजनैतिक रूप से देखा जाये, तो भारतीय जनता पार्टी और इसके कई समर्थक दल संहिता केपक्ष में हैं वहीँ कांग्रेस व अन्य गैर भाजपाई दल इस संहिता का विरोध करते आए हैं।

–समाजिक रूप से देखा जाये, तो जहां एक ओर भारत के पेशेवर और शिक्षित लोग हैं जो इस संहिताके लाभ-हानि का विश्लेषण कर सकते हैं वहीं दूसरी ओर देश के अनपढ़ या कम पढ़े लिखे लोगहैं जो सत्ताधारी दल द्वारा लिए गए फैसलों के अधीन हैं। इस विषय पर इनके कोई निजी विचारनहीं है।

–धार्मिक रूप से देखा जाये, तो हिन्दुओं और अल्पसंख्यक मुस्लिमों के बीच इस संहिता कोलेकर मतभेद है।

–लिंग के आधार पर देखा जाये, तो महिलाओं पुरुषों और बच्चों के बीच इस संहिता को लेकरमतभेद है।

जब-जब इस संहिता का जिक्र होता है शाहबानो केस का जिक्र भी होता है।

इससंहिता में निकाह एवं तलाक को लेकर सर्वाधिक विवाद है इसीलिए तीन तलाक से भी इसका अंदरूनीसंबंध था। सिविल लॉ में विभिन्न धर्मों की अलग परंपराओं के चलते इनके कानून भी अलग-अलगहैं। यूसीसी (Union Civil Code) पर अंतिम सरगर्मी तब देखी गई जब एक ईसाई दंपत्ति कामामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा। दरअसल, ईसाई व्यक्ति ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायरकर ईसाइयों के तलाक अधिनियम को चुनौती दी थी। उसका कहना था, कि ईसाई दंपति को तलाकलेने से पहले 2 वर्ष तक अलग रहने का कानून है जबकि हिंदुओं के लिए यह अवधि कुल 1 वर्षकी है। दूसरी ओर तीन मुस्लिम महिलाओं ने सुप्रीम कोर्ट में अलग-अलग याचिकाएं दायर करतलाक-उल-बिद्दत (तीन तलाक) और निकाह हलाला (मुस्लिम महिला मुंहजबानी तलाक के बाद अपनेपति के साथ तब तक नहीं रह सकती जब तक किसी और मर्द से शादी करके तलाक न ले ले।) कोगैर-इस्लामी और कुरान के खिलाफ बताते हुए इस पर पाबंदी की मांग की।     

हिन्दू,सिख, बौद्ध और जैन धर्म हिन्दू विधि में आते हैं और इनके कानून भारतीय संसद में पारितकिये जाते हैं, जो संविधान पर आधारित होते हैं। मुस्लिमों और ईसाईयों के अपने अलग कानूनहैं। यहां कानून से मतलब विवाह, तलाक, गोद लेना, जमीन-जायदाद का बंटवारा, संपत्ति अधिकरणऔर उसके संचालन से जुड़े मसलों से है, निजी मसलों से है। आसान शब्दों में समझें, तोअभी अलग-अलग धर्मों के अपने अलग नियम हैं, परंपराएं हैं, कायदे हैं, कानून हैं। सामाननागरिक संहिता लागू होने के बाद सब पर एक जैसा कानून लागू होगा।

मध्यप्रदेशकी आर्थिक राजधानी इंदौर की एक महिला थी शाहबानो, अभी जीवित होतीं तो बहुत खुश होतींक्योंकि उनकी लड़ाई अंत में सलफ हुई, जब देश से तीन तलाक का कानून हटा दिया गया। दरअसलसाल 1978 में शाहबानो के शौहर मोहम्मद अहमद ने 62 की उम्र में उन्हें तीन बार तलाक,तलाक, तलाक कहते हुए घर से निकाल दिया था। उस वक्त उन्हें ऐसा करने की इजाज़त कानूनभी देता था। आप यकीन करेंगे? उस वक्त शाहबानो 5 बच्चों की माँ थी। शाहबानों ने पतिके खिलाफ लड़ाई लड़ने का फैसला किया और खुद के साथ अपने 5 बच्चों को पालने के लिए अपनेपति से गुजारा लेने के लिए वे अदालत पहुंचीं। सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचने मात्र में लाचारशाहबानों को 7 साल का वक्त लग गया था।

फिरउच्च न्यायलय ने सीआरपीसी की धारा 125 के तहत फैसला दिया जो हर किसी पर लागू होता है,फिर चाहे वह व्यक्ति किसी भी धर्म का हो। कोर्ट ने निर्देश दिया कि शाहबानो को निर्वाह-व्ययके समान जीविका दी जाए। तब भी बहुत से रूढ़िवादी लोगों को कोर्ट का फैसला मजहब मेंदखल लगा था। उस वक्त कांग्रेस ने इस मामले को धर्मनिरपेक्षता की मिशाल के रूप में पेशकिया। लिहाजा 1986 में मुस्लिम महिला (तलाक अधिकार सरंक्षण) कानून को पास करा दियागया।

लेकिनसुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के बाद मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के नुमाइंदों ने इसके खिलाफआंदोलन छेड़ दिया। देश के तमाम मुस्लिम संगठनों का कहना था, कि न्यायालय उनके पारिवारिकऔर धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप करके उनके अधिकारों का हनन कर रहा है।

कांग्रेसकी तुष्टीकरण की नीति ने तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी को बुरी तरह डरा दिया औरसुप्रीम कोर्ट के फैसले को इस्लाम में दखल मानकर केंद्र ने नया कानून बनाया और सुप्रीमकोर्ट के फैसले को लागू होने से ही रोक दिया गया था और शाहबानो इंसाफ से वंचित रह गईथी। बता दें, उस वक्त कांग्रेस पार्टी की राजीव गांधी सरकार को 415 सीटों के साथ अपारबहुमत प्राप्त था।

ऐसेही दो तीन मामले सामने आने के बाद फिर सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को आदेश दिया, कि तलाकको लेकर कानून बनाया जाए। फिर मोदी  सरकार द्वाराइस पार काम किया गया। ऐसे ही साल 2015 में एक क्रिश्चियन केस के बाद सुप्रीम कोर्टने सरकार को सम्मान नागरिक संहिता को लागू कराने की बात की थी।

अभी देश में सामान रूप से क्या लागू है?

इंडियनपीनल कोड (IPC) दंड संहिता और द कोड ऑफ़ क्रिमिनल प्रोसीजर (CrPC) अपराध दंड संहितादेशभर में सामान रूप से लागू है। मतलब कि, अगर देश के किसी भी कौने में किसी ने रेपकिया या हत्या की तो सभी पर एक जैसी धाराएं लागू होंगी और एक जैसी ही सज़ा भी मिलेगी।लेकिन सभी धर्मों व उनकी कुछ जातियों में शादी के अलग विधि-विधान होते हैं। कुछ धर्मोंमें शादी के बाद लड़कियों को जायदाद में हिस्सा नहीं मिलता, तो कुछ में मिलता है।कुछधर्मों में पैतृक संपत्ति के बंटवारे में बड़े भाई का हिस्सा छोटे भाई से अधिक होताहै। तलाक और अन्य कई मुददों को लेकर सभी धर्मों में ऐसे ही भेदभाव देखने को मिलते हैंसामान नागरिक संहिता लागू होने के बाद ऐसा भेदभाव नहीं होगा, महिलाओं को ज्यादा अधिकारमिल जायेंगे खासतौर पर मुस्लिम महिलाओं को। मुस्लिम महिलाओं को हलाला का शिकार नहींहोना पड़ेगा साथ ही उन्हें तलाक के बाद गुजारा भत्ता भी मिलेगा।

जल्द ही निपटेंगे मुकदमें-

स्वाभाविकसी बात है समान नागरिक संहिता लागू होते ही अदालतों में मुकदमें जल्द ही निपट जायेंगे,क्योंकि अभी अलग-अलग मान्यताओं और धर्मों की व्याख्या करने में जो बहुत ज्यादा समयखर्च हो जाता है वह नहीं होगा। इसके साथ ही यह संहिता देश में एकता बढ़ाएगी और धर्मजाति के नाम पर झगड़े ख़त्म होंगे। फिर सही मायने में हमारा देश एक धर्म निरपेक्ष राष्ट्रकहलायेगा। वोट बैंक की राजनीती भी काफी हद तक कम हो जाएगी।

देश का एकमात्र ऐसा राज्य जहां लागू है यूनिफॉर्म सिविल कोड- 

भारतका सर्वोच्च न्यायलय भी देश की सरकार को तीन बार यूनिफॉर्म सिविल कोड (UCC) लागू करनेको कह चुका है लेकिन अब तक यह सफल नहीं हो सका।

हालही में सितंबर के महीने में गोवा के एक संपत्ति विवाद मामले की सुनवाई के दौरान सुप्रीमकोर्ट ने फिर से टिपण्णी की और कहा, कि शीर्ष अदालत ने कई बार इस बारे में कहा लेकिनअभी तक समान नागरिक आचार संहिता लागू करने का कोई प्रयास नहीं हुआ।

जबकि गोवा भारत का एकलौता राज्य है जहां यह संहिता साल 1961 से ही सफलतापूर्वक लागू है।

भारतीयसंविधान में गोवा को विशेष राज्य का दर्जा मिला हुआ है इसके साथ ही संसद ने कानून बनाकरगोवा को पुर्तगाली सिविल कोड लागू करने का अधिकार दिया था। यह सिविल कोड आज भी गोवामें लागू है। इसको 'गोवा सिविल कोड' के नाम से भी जाना जाता है। बता दें, भारत की आजादीके करीब 14 साल बाद यानी 1961 में गोवा भारत के साथ शामिल हुआ था। तब से ही इस राज्यमें सामान नागरिक संहिता लागू है। 

सरकार ने इस पर अब तक क्या किया?  

सुप्रीमकोर्ट सिर्फ सलाह दे सकता है कोई नया कानून नहीं बना सकता। यह बिल तभी पास हो सकताहै जब इसे विधि आयोग (Law Commission) के सामने पेश किया जायेगा और फिर विधि आयोग इसकोलेकर अपनी रिपोर्ट तैयार करेगा। 21वें विधि आयोग के सामने सरकार ने इस संहिता से जुड़ीयाचिका पेश की थी। लेकिन कुछ ही समय बाद यानी 31 अगस्त 2019 को 21वें विधि आयोग काकार्यकाल ख़त्म होने वाला था। समय की कमी की वजह से विधि आयोग इससे जुड़ी रिपोर्ट तैयारनहीं कर पाया। इसलिए, समान नागरिक संहिता पर पूर्ण रिपोर्ट देने की बजाए विधि आयोगने परामर्श पत्र को तरजीह दी। परामर्श पत्र जारी करते हुए विधि आयोग ने कहा कि 'समाननागरिक संहिता का मुद्दा व्यापक है और उसके संभावित नतीजे अभी भारत में परखे नहीं गएहैं। इसलिये दो वर्षों के दौरान किए गए विस्तृत शोध और तमाम परिचर्चाओं के बाद आयोगने भारत में पारिवारिक कानून में सुधार को लेकर यह परामर्श पत्र प्रस्तुत किया है।'अब 22वें विधि आयोग गठन किया जायेगा और फिर विधि आयोग इस संहिता से जुड़ी रिपोर्ट तैयारकरेगा।

इसकेअलावा इस संहिता को लेकर कई लोगों द्वारा सुप्रीम कोर्ट में भी याचिकाएं दायर की गईहैं। जिसका जवाब देने के लिए सरकार ने सुप्रीम कोर्ट से वक्त मांगा है। कोर्ट द्वारासरकार को 2 मार्च तक का वक्त दे दिया गया है। अब देखना होगा आगे क्या होता है। लेकिनयह बात तो सुनिश्चित है कि सामान नागरिक संहिता को लेकर 2020 में ही परिणाम सामने आजायेगा।   

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