बेटी अपने पिता की संपत्ति पर कब ठोक सकती है दावा और कब नहीं? आइये जानते हैं…
Ashish Urmaliya | The CEO Magazine
हिन्दू उत्तराधिकार कानून:
मौजूदा हालत में भारतीय महिलाओं की आर्थिक स्थिति में काफी सुधार आया है। आज ज्यादातर भारतीय महिलाएं पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर काम कर रही हैं. और आर्थिक रूप से किसी पर भी निर्भर नहीं हैं। ध्यान दीजिये, मैनें ज्यादातर महिलाएं कहा है, पूरी नहीं। ग्रामीण क्षेत्र हो या शहरी, आज भी देश में ऐसी बहुत सी महिलाएं हैं, जो आर्थिक रूप से अपने पिता, भाई, पति पर पूरी तरह से निर्भर हैं। और यह निर्भरता उनकी जिंदगी को कठिन बना देती है। बस यही वजह है कि, हिन्दू सक्सेशन एक्ट 1956 में संसोधन किया गया। यह संसोधन 2005 में किया गया जिसके तहत, घर की बेटियों को पैतृक संपत्ति में बराबर का हिस्सा पाने का अधिकार दिया जा चुका है। इस संसोधन में भी कुछ आड़े टेढ़े पेंच हैं, जिनको हमें समझना चाहिए। तो आइये जानते हैं कि इस नए कानून के अनुसार, बेटी को किन परिस्थितियों में संपत्ति पाने का अधिकार दिया गया है और कब नहीं।
मान लीजिये, किसी लड़की का विवाह कम आयु में हो जाता है, कम आयु का मतलब 18 की उम्र से पहले या फिर उस उम्र के पहले जिसमे वह अपनी पढ़ाई पूरी नहीं कर पाती। और शादी के बाद पति और उसका परिवार उस लड़की को प्रताड़ित करते हैं। तो स्वाभाविक सी बात है कि, उसकी जिंदगी नर्क हो जाएगी, क्योंकि वह इतनी पढ़ी लिखी भी नहीं कि, कोई छोटी-मोती नौकरी कर अपना जीवन यापन कर ले। इस स्थिति में उसके पास एक ही विकल्प होगा, की वह अपने मायके जाए। लेकिन अगर मायके वाले यानी माता-पिता और भाई भी उसकी मदद करने से मुकर गए, तो अब वह क्या करेगी?
बस, उस लड़की को इसी दयनीय परिस्थिति से निकलने के लिए, हिंदू सक्सेशन ऐक्ट 1956 में साल 2005 में संशोधन कर बेटियों को पैतृक संपत्ति में समान हिस्सा पाने का कानूनी अधिकार दिया गया है। लेकिन क्या इस कानून के बाद भी मायके पक्ष के लोग पैतृक संपत्ति देने से इंकार कर सकते हैं? आइये पॉइंट्स के जरिये इस कानून की बारीकियों को समझते हैं…
हिंदी कानून में संपत्ति को दो श्रेणियों में रखा गया है। पहली – पैतृक और दूसरी- स्वअर्जित (स्वयं के द्वारा अर्जित की गई)। पैतृक संपत्ति मतलब चार पीढ़ी तक के पुरुषों द्वारा अर्जित की गई संपत्ति जिसका कभी बटवारा न हुआ हो। ऐसी संपत्ति पर संतानों, चाहे वह बेटा हो या बेटी का जन्मसिद्ध अधिकार होता है।कानून में 2005 के संसोधन से पहले, इस तरह की पैतृक संपत्ति पर सिर्फ बेटों का अधिकार होता था। लेकिन अब पिता इस तरह की संपत्ति का बंटवारा अपनी मनमर्जी से नहीं कर सकता। कानून के मुताबिक, बेटी के जन्म के साथ ही उसका इस संपत्ति पर सामान अधिकार होता है।
संपत्ति की इस श्रेणी में बेटी का दावा कमजोर पड़ सकता है। अगर पिता ने कोई भी संपत्ति अपनी म्हणत की कमाई से बनाई है, तो वह यह संपत्ति जिसको चाहे दे सकता है। यह उसकी संपत्ति होती है और इसके लिए उस पर किसी भी प्रकार का दबाव नहीं बनाया जा सकता है। ऐसी स्थिति में अगर पिता बेटी को अपनी संपत्ति का हिंसा देने से मना करता है, तो बेटी इस पर कुछ नहीं कर सकती।
ये तो हुई ठोस बातें, अब परिस्थितियों की बात कर लेते हैं!
मान लीजिये वसीयत लिखने से पहले ही पिता की मृत्यु हो जाती है। तो कानूनी तौर पर उसके सभी उत्तराधिकारियों का संपत्ति पर बराबर का अधिकार होगा। हिन्दू उत्तराधिकार कानून में उत्तराधिकारों को चार श्रेणियों में वर्गीकृत किया गया है। पिता की संपत्ति पर पहला और एकसमान हक़ पहली श्रेणी के अंतर्गत आ रहे लोगों का होता है। पहली श्रेणी में विधवा, बेटियों और बेटों के साथ-साथ कुछ अन्य लोग आते हैं। मतलब बेटी भी संपत्ति की बराबर की हकदार होती है।
अब अहम बात,
हिन्दू उत्तराधिकार कानून 1956 में 9 सितंबर, 2005 को संसोधन किया गया था. और यह संसोधन कहता है कि, कोई फर्क नहीं पड़ता बेटी कब पैदा हुई, उसका पिता की संपत्ति में अपने भाई के बराबर का हिस्सा होगा। कोई फर्क नहीं पड़ता, वह संपत्ति पैतृक है या पिता द्वारा स्वार्जित। एक और बात, अपने पिता की संपत्ति पर तभी दवा थोक सकती है जब पिता 9 सितंबर, 2005 तक जिंदा रहे हों. अगर पिता की मृत्यु इस तारीख से पहले हो चुकी है तो पैतृक संपत्ति पर बेटी का कोई अधिकार नहीं होगा, हालांकि पिता की स्वार्जित संपत्ति का बंटवारा बेटी की इक्षानुसार होगा।