Politics

एक दम कड़क स्वाभाव वाले देश के चौथे प्रधानमंत्री- मोरारजी देसाई

देश के पहले गुजरती व गैर कांग्रेसी प्रधानमंत्री अपने सख़्त मिज़ाज के लिए मशहूर थे। उन पर दक्षिणपंथी यानि राइटिस्ट होने के आरोप भी लगे तब उन्होंने मुस्कुराते हुए जवाब दिया था कि, 'हाँ मैं राइटिस्ट हूँ क्योंकि आई बिलीव इन डुइंग थिंग्स राइट।'

Ashish Urmaliya

महत्वाकांक्षी होना कोई बुरी बात नहीं है। यह एक मानवीय भावना है। हर कोई अपने क्षेत्र में आगे बढ़ना चाहता है और बढ़ना भी चाहिए। बुरी बात है अतिमहत्वकांक्षी होना और इस तरह के लोग अक्सर राजनीति में देखने को मिलते हैं। जब देश में बड़े-बड़े घोटाले होते हैं, पद प्राप्ति के लिए हत्याएं होती हैं और पद प्राप्ति के मकसद से दल बदल लिए जाते हैं। तब हमें अतिमहात्वाकांक्षा का प्रदर्शन देखने को मिलता था। मोरारजी देसाई अतिमहात्वाकांक्षी नहीं थे अपितु महत्वकांक्षी थे। वे खुल कर सार्वजानिक रूप से अपने प्रधानमंत्री बनने की महत्वाकांक्षा को ज़ाहिर करते थे जो कि राजनीति की दृष्टि से अच्छा नहीं माना जाता।

शास्त्री जी की मृत्यु के बाद जब इंदिरा गांधी देश की प्रधानमंत्री बनीं तब मोरारजी देसाई भी प्रधानमंत्री बनने की प्रबल इच्छा रखते थे लेकिन ऐसा नहीं हो पाया। दल ने इंदिरा गांधी को अपना नेता चुना और वे देश की प्रधानमंत्री बन गईं। हालांकि उन्होंने अपनी सरकार में मोरारजी को देश के उप प्रधानमंत्री एवं वित्तमंत्री का कार्यभार सौंपा था।

हल्का फुल्का मनमुटाव तो पहले से ही था क्योंकि इतने वरिष्ठ और कद्दावर नेता होने के बाद भी उन्हें प्रधानमंत्री नहीं बनाया गया था। कुछ समय बाद ही दोनों के बीच भयंकर मतभेद शुरू हो गए। प्रसिद्द भारतीय पत्रकार इंदर मल्होत्रा के अनुसार इसकी शुरुआत तब हुई जब राष्ट्रीय विकास परिषद की बैठक में एक मुख्यमंत्री ने इंदिरा गांधी से एक सवाल पूछा। आयरन लेडी उस सवाल का जवाब देने ही को थीं कि मोरारजी देसाई ने उन्हें टोकते हुए फुल टशन में कहा... 'मैं इस सवाल का जवाब बेहतर ढंग से दे सकता हूँ।'

इंदिरा गांधी के सबसे ताकतवर नौकरशाह माने जाने वाले पीएन हक्सर ने बाद में इंदर मल्होत्रा को बताया कि इंदिरा गांधी ने उसी दिन तय कर लिया था कि मोरारजी उनके मंत्रिमंडल में नहीं रहेंगे। मामला ठंडे बस्ते में चला गया लेकिन फिर बाद में बैंकों के राष्ट्रीयकरण, कांग्रेस के राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार और प्रिवी पर्स के मुद्दे पर इंदिरा से उनका भयंकर टकराव हुआ। टकराव इस हद तक बढ़ा कि साल 1969 में इंदिरा ने उन्हें वित्त मंत्री के पद से हटा दिया। इसके बाद मोरारजी ने इंदिरा गांधी को पत्र लिखा और कहा कि वो उप प्रधानमंत्री के पद पर भी नहीं रहना चाहेंगे।

नेहरू के सचिव एमओ मथाई अपने एक मित्र के साथ कुतुब मीनार घूमने गए.... बहुत साल पुरानी बात है। मित्र ने उत्सुकतावश एमओ मथाई से पूछा कि मोरारजी देसाई किस तरह के शख़्स हैं? मथाई ने जवाब दिया... "ये जो आप सामने लोहे का खंबा देख रहे हैं। उसे बस गांधी वाली टोपी पहना दीजिए, मोरारजी देसाई आप के सामने होंगे। दिमाग और शरीर दोनों से बिल्कुल कड़क, सीधे और खरे-खरे।"

मोरारजी अपने सख़्त मिज़ाज और ईमानदारी के लिए मशहूर थे!

नेहरू जी ने एक बार अपने सचिव एमओ मथाई से कहा था कि 'भारतीय राजनीति में जिन दो सबसे खरे लोगों से उनका वास्ता पड़ा है, वो पुरुषोत्तमदास टंडन और मोरारजी देसाई हैं।' मोरारजी देसाई के बारे में एक लाइन बेहद मशहूर थी कि वो सख़्त किस्म के गांधीवादी और दीवानगी की हद तक ईमानदार थे।

12 साल डिप्टी कलेक्टर रहे... एक नज़र संक्षिप्त जीवनी पर...

श्री मोरारजी देसाई का जन्म 29 फ़रवरी 1896 को गुजरात के बुलसर जिले में स्थित भदेली गांव के एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उनके पिता रणछोड़जी देसाई एक बेहद अनुशासन प्रिय स्कूल शिक्षक थे। वे अवसाद (जिसे अंग्रेजी में डिप्रेशन कहा जाता है) शिकार से ग्रस्त रहते थे। शायद इसी के चलते उन्होंने कुएं में कूद कर अपना जीवन समाप्त कर लिया था। पिता की मृत्यु के तीसरे ही दिन मोरारजी देसाई की शादी हो गई थी। मोरारजी ने कठिन परिस्थितयों में भी हार ना मानने की सीख अपने पिता से ली थी। शुरूआती शिक्षा सेंट बुसर हाई स्कूल से प्राप्त की फिर स्नातक की पढ़ाई मुंबई के ही एलफिंस्टन कॉलेज से प्राप्त की जो उस समय काफ़ी महंगा और खर्चीला माना जाता था।। तत्कालीन बंबई प्रांत के विल्सन सिविल सेवा से 1918 में उत्रीण होने के बाद उन्होंने बारह वर्षों तक डिप्टी कलेक्टर के रूप में चेटफ़ील्ड नामक ब्रिटिश कलेक्टर (ज़िलाधीश) के अंतर्गत कार्य किया।

राजनीतिक सफर...

आंदोलन किए... जेल गए... मुख्यमंत्री बने... केंद्रीय मंत्री बने... देश के प्रधानमंत्री बने

1930 में महात्मा गांधी द्वारा आजादी के लिए शुरू किया गया संघर्ष अपने मध्य में था। मोरारजी का ब्रिटिश न्याय व्यवस्था से विश्वास उठ चुका था, इसलिए उन्होंने सर्व सुविधा युक्त अंग्रेजी नौकरी छोड़ दी और आजादी की लड़ाई में भाग लेने का निश्चय कर लिया। किसी सामान्य व्यक्ति की दृष्टि से देखा जाए तो यह एक कठिन निर्णय था लेकिन मोरारजी के लिए देश की आजादी सर्वोपरि थी.

श्री मोरारजी देसाई को स्वतंत्रता संग्राम में अपनी अहम भूमिका के चलते तीन बार जेल जाना पड़ा। 1932 में मोरारजी को 2 वर्ष की जेल की सज़ा काटनी पड़ी थी। साल 1931 में उन्होंने अखिल भारतीय कांग्रेस समिति की सदस्यता प्राप्त की और 1937 तक गुजरात प्रदेश कांग्रेस कमेटी के सचिव के दायित्व का निर्वहन किया। ।

साल 1940 में महात्मा गांधी द्वारा शुरू किये गए व्यक्तिगत सत्याग्रह में श्री देसाई को गिरफ्तार कर लिया गया था। अक्टूबर 1941 रिहा किए गए फिर अगस्त 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन के चलते उन्हें फिर से गिरफ्तार कर लिया गया। इस बार उन्हें 1945 में रिहा किया गया। स्वतंत्रता संग्राम में भागीदारी के कारण मोरारजी देसाई के कई वर्ष ज़ेलों में ही गुज़रे। साल 1946 में राज्य विधानसभा के चुनाव हुए। पार्टी को जीत मिली और उन्हें मुंबई का गृह एवं राजस्व मंत्री बनाया गया। अपने कार्यकाल के दौरान उन्होंने भू-राजस्व में कई दूरगामी सुधार किये। पुलिस प्रशासन के क्षेत्र में उन्होंने लोगों और पुलिस के बीच की दूरी को कम करने का काम किया। पुलिस प्रशासन को आम लोगों लोगों की जरूरतों के प्रति अधिक जवाबदेह बनाया ताकि वे लोगों के जीवन एवं संपत्ति को सुरक्षा प्रदान कर सकें। देश की आज़ादी के समय राष्ट्रीय राजनीति में इनका नाम काफी वज़नदार हो चुका था। चाहते तो केंद्रीय मंत्री का पद ले लेते लेकिन मोरारजी की प्राथमिक रुचि राज्य की राजनीति में ही थी। इसी के चलते वर्ष 1952 में 56 वर्ष की आयु में वे बंबई के मुख्यमंत्री बने। विदित हो, इस समय तक महाराष्ट्र और गुजरात, बंबई प्रोविंस के नाम से जाने जाते थे, दोनों राज्यों का पृथक गठन नहीं हुआ था।

उनका यह मानना था कि जब तक गांवों और कस्बों में रहने वाले गरीब लोग सामान्य जीवन नहीं जीते, तब तक समाजवाद का कोई अर्थ ही नहीं है। मोरारजी ने किसानों एवं किरायेदारों की समस्याओं को दूर करने की दिशा में प्रगतिशील कानून बनाया। गरीबों को सामान्य स्तर पर लाने के मामले में देसाई की सरकार देश के अन्य राज्यों से बहुत आगे थी। बंबई में उनकी इस प्रशासन व्यवस्था को देशभर से तारीफ भी मिली थी।

महाराष्ट्र और गुजरात राज्य को पुनर्गठित करने के बाद श्री मोरारजी देसाई 14 नवंबर 1956 को नेहरू सरकार के केंद्रीय मंत्रिमंडल में शामिल हो गए। उन्होंने वाणिज्य एवं उद्योग मंत्री का कार्यभार संभाला फिर बाद में 22 मार्च 1958 से वित्त मंत्रालय का कार्यभार संभाला। इस दौरान उन्होंने समाज के उच्च वर्गों द्वारा किये जाने वाले फिजूलखर्च को प्रतिबंधित कर उसे नियंत्रित करने का भारी प्रयास किया। इसके बाद वे लगातार कई बार केंद्रीय मंत्री बने।

प्रधानमंत्री पद

इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा श्रीमती गांधी के लोकसभा चुनाव को निरर्थक घोषित कर दिया गया। कांग्रेस से नाता तोड़ चुके देसाई ने विपक्षियों द्वारा श्रीमती गांधी से मांगे जा रहे इस्तीफे का भरपूर समर्थन किया। देश में आपातकाल घोषित होने के साथ ही 26 जून 1975 को मोरारजी को गिरफ्तार कर लिया गया एवं एकान्त कारावास में रखा गया। लोकसभा चुनाव होने की घोषणा से कुछ दिनों पहले 18 जनवरी 1977 को उन्हें रिहा कर दिया गया। रिहाई के बाद उन्होंने देशभर में पूरे जोर-शोर से अभियान चलाया। उस समय इमरजेंसी के चलते इंदिरा का देश भर में चौतरफा विरोध हो रहा था। इन्हीं सब करने के चलते छठी लोकसभा के लिए मार्च 1977 में आयोजित आम चुनाव में जनता पार्टी ने जबर्दस्त जीत हासिल की। इस जीत के पीछे मोरारजी की भूमिका को भी महत्वपूर्ण माना गया। मोरारजी तो शुरू से ही प्रधानमंत्री बनना चाहते थे परंतु यहां पर भी प्रधानमंत्री पद के दो अन्य प्रबल दावेदार मजूद थे-चौधरी चरण सिंह और जगजीवन राम जी। लेकिन इस बार मोरारजी की मेहनत के साथ किस्मत ने भी उनका साथ दिया। जयप्रकाश नारायण जो स्वयं कभी कांग्रेसी हुआ करते थे, उन्होंने अपनी किंग मेकर की स्थिति का लाभ उठाते हुए मोरारजी देसाई का समर्थन किया और उन्हें देश का प्रधानमंत्री बनाया।

23 मार्च 1977 को 81 वर्ष की अवस्था में मोरारजी देसाई ने भारतीय प्रधानमंत्री पद की शपथ ली। प्रधानमंत्री बनते ही श्री मोरारजी ने देश के उन 9 राज्यों की सरकारों को भंग कर दिया गया जहां कांग्रेस की सरकार थी। इसके साथ ही उन 9 राज्यों में नए चुनाव कराये जाने की घोषणा भी करा दी गई। यह एक अलोकतांत्रिक व असंवैधानिक कृत्य था। उस दौरान जनता पार्टी खासतौर पर मोरारजी देसाई कांग्रेस का देश से सफ़ाया करने में तुले हुए नजर आए। हालांकि इस कार्य में उन्हें बुद्धजीवियों का समर्थन प्राप्त नहीं हुआ।

इसके अलावा प्रधानमंत्री के तौर पर श्री मोरारजी देसाई भारत के लोगों को इस हद तक निडर बनाना चाहते थे कि देश में कोई भी व्यक्ति, चाहे वह किसी भी बड़े पद पर ही आसीन क्यों न हो, अगर कुछ गलत करता है तो देश का कोई भी नागरिक उसे उसकी गलती बता सके। उनका हमेशा यही कहना रहा कि, 'कोई भी, यहां तक कि देश का प्रधानमंत्री भी देश के कानून से ऊपर नहीं होना चाहिए।'

श्री मोरारजी देसाई देश के एकमात्र ऐसे व्यक्ति हैं जिन्हें भारत के सर्वोच्च सम्मान भारत रत्न एवं पाकिस्तान के सर्वोच्च सम्मान निशान-ए-पाकिस्तान से सम्मानित किया गया है। प्रधानमंत्री रहते हुए उन्होंने पाकिस्तान से बेहतर संबंध स्थापित किए थे। उस समय पाकिस्तान के राष्ट्रपति जिया उल हक थे। 70 के दशक के प्रारंभ में भारत पाकिस्तान के रिश्ते बहुत ख़राब हो चुके थे। दोनों देशों के रिश्तों को ठीक करने के लिए दोनों राष्ट्र प्रमुखों के बीच एक मीटिंग हुई थी। उस मीटिंग में मोरारजी ने जिया उल हक से कहा था, 'लेन-देन चलते रहना चाहिए। अगर हम दोनों देशों के हितों की दिशा में काम करें तो हमारे बीच कोई झगड़ा नहीं होगा। हमें एक-दूसरे से भाई की तरह व्यवहार करना चाहिए। मैं तुम्हारा बड़ा भाई हूं। मुझे तुमसे कुछ लेना नहीं है। मुझे बस तुम्हें सबकुछ देना है।’

एक्टिव पॉलिटिक्स से रिटायर होने के बाद साल 1986 में पाकिस्तान ने श्री मोरारजी को अपने सर्वोच्च सम्मान 'निशान-ए-पाकिस्तान' से नवाजा। साल 1991 में उन्हें भारत रत्न से सम्मानित किया गया। मोरारजी दीर्घायु रहे। 10 अप्रैल 1995 को 99 वर्ष की आयु में उनका निधन हो गया।

(इस लेख के कुछ शुरुआती तथ्य 'BBC हिंदी' से लिए गए हैं)

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