illegal का मतलब illegal होता है। देश में ड्रग्स कंस्यूम करना अवैध है। अगर में एक सवाल पूछूं कि क्या सरकार माल फूंकती है? तो सरकार को यह सवाल चुभेगा। ड्रग्स की ही तरह जंगली पेड़ काटना भी अवैध है। यहां तक कि आप अपनी निजी प्रॉपर्टी पर लगा पेड़ भी बिना वन विभाग की अनुमति के नहीं काट सकते। बिना अनुमति के पेड़ काटेंगे तो भारतीय वन अधिनियम के अनुसार, आपको 10 हजार का जुर्माना या 3 महीने की जेल हो सकती है। तो फिर सरकार को किसने अधिकार दिया कि वह कमाई के नाम पर एक दो पेड़ नहीं बल्कि पूरा का पूरा बक्सवाहा का जंगल (Buxwaha forest) ही कटवा दे? हज़ारों-लाखों पेड़ काट दे?
दरअसल, सरकार को ये विशेषाधिकार हमारे-आपके जैसे करोड़ों नागरिकों ने अपने वोट के ज़रिए दिया है। खैर, छोड़िए!
डेढ़-दो महीने पहले, अप्रेल माह की ही घटना है। देश में कोरोना का डेल्टा वेरिएंट तबाही मचाने में लगा हुआ था। देशभर के अस्पताल और मरीज ऑक्सीजन की कमी से जूझ रहे थे, अकल्पनीय जानें जा रही थीं। उसी दौरान मध्य प्रदेश के रायसेन जिले से एक खबर सामने आई। रायसेन जिले के भमोरी वन परिक्षेत्र के अंतर्गत ग्राम सिलवानी के छोटे लाल भिलाला के ऊपर दो सागौन के पेड़ काटने पर 1 करोड़ 21 लाख रूपए का जुर्माना (Rs 1 crore 21 lakh fine) लगाया गया है। दरअसल, 30 वर्षीय छोटे लाल ने इसी साल 5 जनवरी को दो सागौन के पेड़ काटे थे।
जुर्माने की खबर सुनी तो अच्छा लगा कि अवैध तरीके से और ऊपर से जंगली पेड़ काटने वालों के साथ ऐसा ही होना चाहिए। भावनाएं कुछ ऐसी ही बन चुकी थीं। क्योंकि उस समय हमें अपनी असल औकात और ऑक्सीजन की असल वैल्यू समझ आ गई थी।
पत्रकारों द्वारा भमोरी वन रेंजर महेंद्र सिंह से इस लगाए गए अद्भुत फाइन का आधार पूछा गया तो उन्होंने कहा था, कि 'ये फाइन एक पेड़ से उसके जीवनकाल में अर्जित लाभों की वैज्ञानिक गणना के आधार पर लगाया गया है। वैज्ञानिक अनुसंधान के अनुसार एक पेड़ का औसत जीवन लगभग 50 वर्ष माना जाता है और अपने इस जीवन काल के दौरान उस पेड़ से प्राप्त लाभों का मूल्य भी लगभग 60 लाख रुपये होता है।'
उन्होंने कहा, 'भारतीय वन अनुसंधान और शिक्षा परिषद्द्वारा की गई शोध के मुताबिक एक पेड़ अपने जीवनकाल में लगभग 12 लाख रुपये की ऑक्सीजन देता है। वही पेड़ मिट्टी के कटाव रोकने एवं स्वच्छ पानी की आपूर्ति में भी मदद करता है जिसकी कीमत लगभग 24 लाख रुपये आंकी गई है। इसके साथ ही वह पेड़ लगभग 24 लाख रुपये की कीमत का वायु प्रदूषण भी कम करता है। इस तरह एक पेड़ की कीमत लगभग 60 लाख रुपये हो जाती है। हालांकि एक पेड़ की तुलना पैसे से हरगिज़ नहीं की जा सकती लेकिन जुर्माने के मकसद से यह आंकड़ा निकाला जाना उचित है।' यही कारण है कि 2 पेड़ काटने के लिए अपराधी छोटे लाल पर 1 करोड़ 21 लाख रूपए का जुर्माना लगाया गया है।'
तो अब आप सोचिए कि अगर स्वयं सरकार हज़ारों पेड़ों को कटवाएगी तो उसका कितना जुर्माना बनेगा और उसे कौन भरेगा? जुर्माना छोड़िए, क्योंकि जुर्माना मिल भी गया तो वह ऑक्सीजन बन कर आपके फेफड़ों तक कभी नहीं पहुंच पायेगा। सवाल गहरा है! बीते दिनों जिस ऑक्सीजन के लिए कई लोगों ने अपनी ज़मीन-ज़ायदाद बेच दी, उस ऑक्सीजन से कीमती हीरे कैसे हो सकते हैं?
बक्सवाहा, जी हां आपने ठीक पढ़ा... बक्सवाहा! सरकार बक्सवाहा के जंगल को स्वाहा करने का ब्लूप्रिंट तैयार कर चुकी है।
मध्य प्रदेश का सबसे पिछड़ा इलाका है बुंदेलखंड। बुंदेलखंड क्षेत्र के अंतर्गत एक जिला पड़ता है छतरपुर। छतरपुर जिले के अंतर्गत एक ब्लॉक है, बक्स्वाहा।
जंगली इलाका है, वहां से 10 किलोमीटर की दूरी पर एक जगह है 'इमलीघाट'। इस जगह पर जमीन के नीचे 'हीरों' का भंडार होने का अनुमान है। वो कह रहे हैं कि यहां पन्ना से 15 गुना ज्यादा मात्रा में हीरे हैं। तकरीबन 50 हजार करोड़ रुपये के हीरे। बताते चलूं, देश में जितना हीरा निकलता है उसमें सबसे ज्यादा हीरा मध्यप्रदेश से ही निकलता है। मध्यप्रदेश में देश के कुल हीरे उत्पादन के 32% हीरे निकलते हैं। इन 32% में से 31.5% हीरे मात्र मध्यप्रदेश के पन्ना जिले से ही निकलते हैं। पन्ना जिले में अभी तक देश का सबसे बड़ा हीरा भंडार है। पन्ना की जमीन में कुल 22 लाख कैरेट के हीरे होने का अनुमान है। इनमें से अब तक 13 लाख कैरेट हीरे निकाले जा चुके हैं, 9 लाख कैरेट हीरे निकलने बाकी हैं। लेकिन बकस्वाहा में पन्ना से 15 गुना ज्यादा हीरे निकलने का अनुमान है। देश में बाकी के हीरे छत्तीसगढ़, झारखंड, आंध्रप्रदेश, कर्नाटक और केरल जैसे राज्यों से उत्पादित होते हैं।
मामला पेड़ों का है इसलिए विवाद को जड़ से समझिए :
रिओ टिंटो कंपनी नाम बहुत सुना होगा, नहीं सुना?
सरकार ने 20 साल पहले छतरपुर जिले के बक्सवाहा में बंदर प्रोजेक्ट के तहत एक सर्वे की शुरुआत की थी। साल 2005 में शिवराज सिंह ने मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री पद की कमान संभाली और 2006 में, मध्य प्रदेश सरकार ने बक्सवाहा क्षेत्र में हीरे के खनन का पता लगाने के लिए एक ऑस्ट्रेलियाई खनन कंपनी रियो टिंटो एक्सप्लोरेशन इंडिया प्राइवेट लिमिटेड (Rio Tinto India Pvt Ltd) को एक पूर्वेक्षण लाइसेंस प्रदान किया। 2008 कंपनी ने जंगल में हीरे का स्पॉट खोज निकाला। सरकार ने अच्छा खासा राजस्व प्राप्त करने के मकसद से योजना तैयार कर ली। लेकिन उस वक्त भी पेड़ काट कर हीरे निकालने वाली इस योजना का भारी विरोध हुआ। हालांकि विरोध के बाद भी योजना परवान चढ़ सकती थी लेकिन ऐसा कहा जाता है कि उस वक्त शिवराज सरकार ने रियो टिंटो के लिए दो शर्तें जोड़ दी थीं।
शर्तें ये थीं कि कंपनी को अपनी इकाई यहीं स्थापित करनी होगी। इसके साथ ही पॉलिशिंग का काम भी मध्यप्रदेश में ही होगा। फिर मामला ठंडे बास्ते में चला गया। मुख्य कारण क्या था कोई नहीं जनता।
कुछ साल बीते साल 2017 आया, रियो टिंटो कंपनी ने बिना कोई उचित कारण बताए, सरकार को पूर्वेक्षण रिपोर्ट सौंपी और प्रोजेक्ट को अलविदा कह दिया। कंपनी ने जमीन, प्लांट, उपकरण और वाहनों सहित सभी संबद्ध बुनियादी ढांचे सरकार के सुपुर्द किए और चली गई। साल 2018 में मध्यप्रदेश में सत्ता परिवर्तन हुआ, कांग्रेस की कमलनाथ वाली सरकार आई। कमलनाथ ने सत्ता में आते ही प्रोजेक्ट की उन दोनों शर्तों को हटा दिया। दोबारा इस संभावित हीरा खदान की नीलामी शुरू की गई जिसे आदित्य बिड़ला ग्रुप (Aditya Birla Group) के एस्सेल माइनिंग एंड इंडस्ट्रीज़ लिमिटेड (Essel Mining & Industries Limited) ने खनन के लिए खरीदा। अब ये जमीन आदित्य बिड़ला ग्रुप के पास 50 साल की लीज पर जा चुकी है।
हीरे होने की जानकारी कैसे लगी?
दरअसल, बक्सवाहा और आस-पास के क्षेत्र में Kimberlite की चट्टानें कुछ ज्यादा ही मात्रा में हैं और जहां ये चट्टानें ज्यादा मात्रा में होती हैं वहां हीरे निकलने की संभावनाएं भी शत प्रतिशत होती हैं। सर्वे के दौरान रिओ टिंटो कंपनी को एक नाले के किनारे किंबरलाइट की चट्टान दिखाई दी। बस, फिर कंपनी से अनुमान लगा लिया।
कितनी है जमीन?
बताया जा रहा है कि जमीन और हीरे इतने ज्यादा हैं कि अगर ये प्रोजेक्ट शुरू हो पाया तो यह एशिया की सबसे बड़ी हीरे की खदान होगी। हीरा भंडार वाली ज़मीन तो 62.64 हेक्टेयर है जिसे मध्यप्रदेश सरकार द्वारा 50 साल के लिए लीज पर दिया है। लेकिन कंपनी ने सरकार से 382.131 हेक्टेयर का जंगल मांगा है। कंपनी का तर्क है कि खदानों से जो मालवा निकलेगा उसको बाकी की ज़मीन पर डंप किया जायेगा। इस प्रोजेक्ट में कंपनी 2 हज़ार 5 सौ करोड़ रुपये का निवेश करने वाली है। कंपनी ने वित्तीय वर्ष 2022 के अंत तक खनन पट्टे के निष्पादन का लक्ष्य रखा है। यह यह स्पॉट भोपाल से उत्तरपूर्व की ओर लगभग 225 किलोमीटर की दूरी पर है।
फायदे में सरकार की हिस्सेदारी:
अनुमान के मुताबिक, बक्सवाहा के जंगलों की जमीन के नीचे 50 हज़ार करोड़ रुपए के हीरे हैं। इस प्रोजेक्ट में मध्यप्रदेश सरकार की करीब 42 प्रतिशत हिस्सेदारी भी है।
समस्या क्या खड़ी हो रही है?
समस्या क्या नहीं है ये पूछिए! इस हीरा परियोजना के अंतर्गत 382.131 हेक्टेयर (944.26 एकड़) जगह में फैला जंगल काटा जायेगा। लगभग 2,15,875 पेड़ों की बलि दी जाएगी। इन पेड़ों में से करीब 40 हजार पेड़ सागौन के हैं जो 100 वर्ष से भी अधिक पुराने बताए जा रहे हैं। इसके अलावा इस जंगल में महुआ, केम, पीपल, तेंदू, जामुन, बहेड़ा, अर्जुन जैसे औषधीय पेड़ भी हैं। स्वाभाविक सी बात है पेड़ों की भरमार वाले इस जंगल में जंगली जीव तो रहते ही होंगे। पर्यावरण कार्यकर्ता मेधा पाटकर ने एक मीडिया संस्थान से बातचीत के दौरान यह बताया था कि इन पेड़ों के कटने से जंगल से सटे 20 गांवों (हिंरदेपुर, तिलई, हरदुआ, तिलई, सगोंरिया, कसेरा, बीरमपुरा और जगारा जैसे गांव) में रहने वाले 8000 निवासियों पर भारी प्रभाव पड़ेगा, क्योंकि उनका पूरा जीवन इन्हीं जंगलों पर आश्रित है।
5 साल में रिपोर्ट ही बदल दी गई...
हीरे निकाले गए तो पर्यावरण को भयंकर नुकसान होना तय है। यह एक तरह से ऑक्सीजन की तार काटने जैसा होगा। रियो टिंटो कंपनी और जियोलॉजी एंड माइनिंग मप्र ने मई 2017 में जो रिपोर्ट पेश की थी उसके अनुसार, इस जंगल में तेंदुआ, नीलगाय, बाज (वल्चर), भालू, बारहसिंगा, हिरण, मोर, बंदर, खरगोश, रिजवा, जंगली सुअर, लोमड़ी, चिंकारा, वन बिल्ली अदि का होना पाया गया था। लेकिन जो नई रिपोर्ट पेश की गई है उसके अनुसार अब ये वन्यजीव यहां नहीं हैं।
अब क्या चल रहा है?... . . . . . . भयंकर विरोध!
सबसे बड़ा विरोध सोशल मीडिया पर है... #SAVE_BAXWAHA_FOREST , #FOREST , #Buxwahaforest , #SaveBuxwahaForest , #BUXWAHA , #india_stand_with_buxwaha नामक ट्रेंड टॉप पर रहे हैं। लाखों लोग सोशल मीडिया पोस्ट्स कर रहे हैं और जंगल बचाने के समर्थन में अपने विचार रख रहे हैं। विरोध में ऑनलाइन पेटीशन साइन करवाए जा रहे हैं, वीडियोज बनाए जा रहे हैं। मीडिया भी बढ़-चढ़ कर अपनी भूमिका निभा रहा है। इसके साथ ही ज़मीनी स्तर पर पर्यावरणविद, सामाजिक संगठन, कार्यकर्ता इसका जमकर विरोध कर रहे हैं। कुछ युवा चिपको आंदोलन कर रहे हैं (युवा पेड़ों से चिपककर अपना विरोध दर्ज कर रहे हैं) तो कोई खून से प्रधानमंत्री को चिट्ठी लिख रहा है। जंगल को बचाने के लिए स्थानीय आदिवासियों ने भी एक समिति का गठन कर लिया है। हाल ही कुछ संत भी जंगल कटने के विरोध में सामने आए हैं संतों में चित्रकूट प्रमुख द्वार के महंत स्वामी मदन गोपाल दास जी का नाम उभर कर सामने आ रहा है।
मामला कोर्ट तक पहुंच चुका है..... स्थानीय भावनाएं...
मामला NGT (National Green Tribunal) के पास पहुंच चुका है। जबलपुर के डॉक्टर पीजी नाजपांडे ने नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) भोपाल में याचिका दायर की है जिसमें हीरे की खदानों को रद्द करने की अपील की गई है। समाजसेविका नेहा सिंह द्वारा 9 अप्रैल को सुप्रीम कोर्ट में भी दाखिल की जा चुकी है, सुनवाई का इंतज़ार है। पत्रकार, लेखक निदा रहमान ने अपने लेख में जानकारी दी है कि वहां के स्थानीय लोगों का कहना है कि 'सरकार हीरे निकलना चाहती है तो निकाले, लेकिन उसके लिए इतने बड़े पैमाने पर पेड़ों को काटने की ज़रूरत क्या है। क्या सरकार कोई ऐसा रास्ता नहीं निकाल सकती जिससे कि पूरे जंगल को ना काटा जाए।
बहुत जल्द जंगल के आसपास रह रहे लोगों से मिलूंगा, अब तक उस धरती पर पैर नहीं रख पाया हूं। लेकिन...
न्यूज़ लांड्री में छपे एक आर्टिकल में दी गई जानकारी के अनुसार, स्थानीय लोगों का कहना है, कि हम पूरी तरह जंगल पर ही आश्रित है। कंपनी के आने से हमें जीवन यापन में सहायता मिलेगी, लेकिन पूरे वन को खत्म करने से हमारा भी जीवन खत्म हो जाएगा। लोगों ने यह भी कहा कि अगर जंगल पूरी तरह खत्म हुए तो हमें जानवरों को चराने के लिए करीब 12 किलोमीटर दूर ले जाना पड़ेगा। क्षेत्र में अच्छे रास्ते नहीं होने की वजह से हमें और भी ज्यादा परेशानी का सामना करना पड़ेगा। अभी जंगल नजदीक है तो हमें किसी भी तरह परेशानी का सामना नहीं करना पड़ता।
बक्सवाहा के अलावा मध्यप्रदेश में और कहां-कहां पेड़ों की बलि चढ़ने वाली है?
बुंदेलखंड एक्सप्रेसवे (Bundelkhand Expressway) के लिए दो लाख पेड़ों की एवं केन-बेतवा लिंक परियोजना (Ken-Betwa Link Project) के तहत करीब 23 लाख पेड़ों की बलि चढ़ने की संभावना है।
नर्मदा आंदोलन का अनुभव
जब किसी भी परियोजना के चलते पेड़ों को काटा जाता है तो कंपनियों द्वारा उतने ही पेड़ लगाए जाने का वादा और फिर दवा भी किया जाता है। लेकिन पेड़ जमीन पर कम और कागजों पर लगते हैं। नर्मदा आंदोलन के वक्त एक निजी कंपनी ने जिन स्थानों पर पेड़ लगाने की बात कही थी, उस ज्यातर जमीन पर किसानों के खेत, तालाब और अन्य क्षेत्र थे। बृक्षारोपण के नाम पर निजी कंपनियां बबूल के पेड़ लगा देते हैं जबकि एक वन परिक्षेत्र में विभिन्न प्रकार के पेड़ मौजूद होते हैं जो एक तरह का बैलेंस बनाने का काम करते हैं।
हाल ही G-7 Summit हुआ था उसका सबसे बड़ा मुद्दा क्या था, जानते हैं आप? जलवायु परिवर्तन जबकि सब अनुमान लगा रहे थे कि कोरोना सबसे बड़ा मुद्दा होगा। कोरोना था मुद्दा लेकिन दुसरे स्थान पर। तो कहने का मतलब ये है कि आज भारत के साथ पूरी दुनिया के सामने जो सबसे बड़ी समस्या है वह जलवायु परिवर्तन है। और इसके पीछे के सबसे बड़े कारण कटते पेड़ और बढ़ता प्रदूषण हैं। जहां एक ओर हमें, आपको और खासतौर पर सरकार को युद्ध स्तर पर वृक्षारोपण करना चाहिए वहीँ दूसरी ओर विकास, कमाई के नाम पर भयंकर मात्रा में पेड़ काटे जा रहे हैं, प्रदूषण फैलाया जा रहा है।
2014 से 2019 के बीच, मात्र 5 सालों में विकास के नाम पर 1,09,75,844 पेड़ काटे गए
लोकसभा में एक सवाल के जवाब में, पर्यावरण राज्य मंत्री (MoS) बाबुल सुप्रियो ने 2019 में कहा था कि मंत्रालय ने 2014 और 2019 के बीच विकास उद्देश्यों की पूर्ति के लिए 1.09 करोड़ पेड़ों को काटने की अनुमति दी है। साथ ही उन्होंने यह जानकारी भी साझा की थी कि सभी पांच वर्षों में सबसे अधिक संख्या में पेड़ 2018-19 में विकास के लिए काटे गए।
नोट- बहुत सी जानकारी व तथ्य विभिन्न प्रतिष्ठित मीडिया संस्थानों की रिपोर्ट्स से लिए गए हैं।