रानी लक्ष्मी बाई का जीवन शक्ति और साहस का बहुत बड़ा उदाहरण है 
प्रेरणा

रानी लक्ष्मी बाई का जीवन शक्ति और साहस का बहुत बड़ा उदाहरण है

Pramod

सिंहासन हिल उठे राजवंशों ने मृकुटी तानी थी,

बूढ़े भारत में आई फिर से नई जवानी थी,

चमक उठी सन सत्तावन में,यह तलवार पुरनी थी,

बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,

खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।

देश को आज़ाद कराने की पहली लड़ाई में जो मर्दानी हिम्मत और साहस के साथ लगी रही। जिसने मृत्यु को करीब आता देख भी हार नहीं मानी। उस लड़ाका पर सुभद्रा कुमारी चौहान ने एक कविता लिखी और उसे हमेशा के लिए अमर कर दिया। रानी लक्ष्मी बाई(Rani Lakshmi Bai) का जीवन शक्ति और साहस का बहुत बड़ा उदाहरण है।

लक्ष्मीबाई(Lakshmi Bai) की ज़िन्दगी जितनी कठिन थी उनके हौसले उतने ही मज़बूत रहे हैं। लड़कियों के खिलौनों में अकसर गुड्डे-गड़िया आते हैं पर लक्ष्मी(Lakshmi) की दोस्ती बरछी, ढाल, कृपाण जैसे हथियारों से थी।

उनके जीवन को देखे और जाने तो उनकी वीरता और मातृभूमि से प्यार साफ़ झलकता है। अपने उद्देश्य की प्राप्ति के लिए उन्होंने सदैव ही बड़ी मेहनत और परिश्रम किए है।

जीवन परिचय

वाराणसी(Varanasi) में 19 नवंबर, 1828 को एक नन्ही सी परी ने जन्म लिया। मोरोपंत तांबे (Moropant Baazi) और भागीरथी बाई(Bhagirathi Bai) ने उसका नाम मणिकर्णिका(Manikarnika) रख दिया।

मनु को माता-पिता दोनों से बहुत ही प्यार मिला लेकिन जल्द ही कुदरत ने दूसरा मोड़ दे दिया। माँ के निधन के बाद चार साल की मनु को लेकर उसके पिता झाँसी(Jhansi) चले गए जहाँ वह नाना के साथ रहने लगी।

मनु(Manu) और नाना की दोस्ती बेहद मशहूर हुई। नाना ने मनु(Manu) को बहुत नाज़-प्यार से पाला और उसे शस्त्र विद्या सिखाई।

मनु(Manu) का भी दिल गुड़िया-खिलोनो से ज़्यादा इन सब में लगने लगा। नाना उसे "छबीली" कह कर पुकारते थे। मनु(Manu) और नाना के मज़बूत रिश्ते का ज़िक्र सुभद्रा कुमारी चौहान (Subhadra Kumari Chauhan) ने अपनी कविता में भी किया है।

"नाना के सॅंग पढ़ती थी वो नाना के सॅंग खेली थी, बरछी, ढाल, कृपाण, कटारी, उसकी यही सहेली थी"

छबीली जब 12 साल की थी तब उसकी शादी झाँसी(Jhansi) के राजा गंगाधर राव(Raja Gangadhar Rao) के साथ करा दी गई। छोटी सी मनु को शादी-ब्याह के बारे में तो कुछ पता न था लेकिन फिर भी उसने अपनी सारी ज़िम्मेदारी अच्छे से निभाई।

मनु की शादी के बाद झाँसी(Jhansi) की आर्थिक स्थिति में बहुत सुधार होने लगा, मुनाफा होने लगा जिसके बाद उसका नाम लक्ष्मीबाई(Lakshmi Bai) रखा गया। साहसी और शस्त्र-विद्या में माहिर लक्ष्मीबाई(Lakshmi Bai) ने किले के अंदर ही एक महिला-सेना खड़ी कर ली, जिसका नियंत्रण वह मर्दानी पोषाक में किया करती थी।

पति गंगाधर राव(Gangadhar Rao) मनु(Manu) की कला और साहस से बड़े प्रसन्न रहा करते थे। उन्होंने मनु को कभी किसी बात पर इंकार ना किया और मनु भी अपनी कोशिशों में लगी रहती थी। कुछ वक्त बाद ही मनु(Manu) ने एक पुत्र को जन्म दिया लेकिन कुछ महीने का हो कर उस बच्चे ने दम तोड़ दिया।

संकट का आगाज़

राजा को पुत्र मृत्यु का इतना दुःख हुआ कि उन्होंने 21 नवंबर, 1853 को अपने प्राण त्याग दिए। 25 साल की लक्ष्मी(Lakshmi) पर जैसे दुःख का पहाड़ टूट पड़ा हो। पहले पुत्र फिर पति , पर लक्ष्मी को दुःख ज़ाहिर करने का वक्त भी नहीं मिला। झाँसी(Jhansi) की गद्दी खाली देख कर अँग्रेज़ों के मुँह में जैसे पानी आ गया हो, उन्होंने झांसी पर चढाई शुरू कर दी।

बहादुर और समझदार लक्ष्मी(Lakshmi) ने तब तोपों से युद्ध करने की रणनीति बनाई और कड़क बिजली, घनगर्जन, भवानीशंकर जैसे तोपों को किले पर विश्वासपात्र तोपची के नेतृत्व में लगा दिया।14 मार्च, 1857 से 22 मार्च, 1857 तक तोपें किले की हिफाज़त में आग उगल रही थी।

लक्ष्मीबाई(Lakshmi Bai) की सूझ-बुझ और तैयारी ने अँग्रेज़ों को बड़ा हैरान-परेशान किया। आखिर पीठ पर छोटे से गोद लिए पुत्र दामोदर राव(Damodar Rao) को बांधे लक्ष्मीबाई (Lakshmi Bai) भयंकर युद्ध कर रही थी। पर हज़ारों अँग्रेज़ों के आगे झाँसी की मुट्ठी भर सेना कितने ही दिन टिक सकती थी, इस लिए अपनी रानी को बचाने के लिए उन्होंने लक्ष्मीबाई (Lakshmi Bai) को कालपी की ओर जाने की सलाह दी।

वही झलकारी बाई और मुंदर सखियों ने युद्धभूमि पर खूब कौशल और बल दिखाया। रानी विश्वसनीय चार-पांच घुड़सवार लेकर कालपी की ओर निकल गई और उनके पीछे-पीछे अंग्रेज़ सैनिक भी उनका पीछा करने चल पड़े। कैप्टन वाकर(captain walker) ने रानी पर प्रहार कर उन्हें घायल भी कर दिया।

कालपी तक का सफर

लगातार 24 घंटो का सफर और 102 किलोमीटर की यात्रा तय करने के बाद लक्ष्मीबाई (Lakshmi Bai) कालपी(Kalpi) पहुंची।

कालपी के पेशवा ने ना केवल रानी को पनाह दी बल्कि उनकी सहायता करने का भी फैसला किया। पेशवा ने रानी को ज़रूरत के हथियार व सेना देने का फैसला भी किया था। 22 मई को ह्यूरोज ने कालपी(Kalpi) पर हमला बोल दिया जिसका सामना लक्ष्मीबाई ने पूरी बहादुरी के साथ किया।

उनकी बहादुरी ने तो अंग्रेज़ी सेना को भी डरा दिया, उनके आक्रमण से ब्रिटिश सेना घबरा गई थी, लेकिन होनी को कौन टाल सकता है। 24 मई को ह्यूरोज ने कालपी पर कब्ज़ा कर लिया। जिसके बाद राव साहब पेशवा(Rao Saheb Peshwa), तात्या टोपे(Tatya Tope) और रानी लक्ष्मीबाई ने ग्वालियर( Gwalior) जाने का निर्णय किया।

पर ग्वालियर(Gwalior) के राजा और अंग्रेज़ों के बीच अच्छी दोस्ती हुआ करती थी, जिससे लक्ष्मीबाई और साथी की जान को खतरा होता इस लिए लक्ष्मीबाई ने ग्वालियर(Gwalior) पर आक्रमण कर वहा के राजा को हरा दिया और किला पेशवा को सौंप दिया।

लक्ष्मीबाई का अंतिम सफर

17 जून को ह्यूरोज ने ग्वालियर( Gwalior) पर हमला कर दिया लेकिन लक्ष्मीबाई ने हार नहीं मानी और डट कर सेना का सामना किया।

उन्होंने किसी और के घोड़े और पुरुष के कपड़ों का चुनाव किया जंग के लिए ताकि कोई उन्हें पहचान न पाए। रानी ने दामोदर राव(Damodar Rao) को रामचंद्र देशमुख(Ramchandra Deshmukh) को सौंप दिया और युद्धभूमि की ओर निकल गई।

सोनरेखा नाले(Sonrekha drains) को रानी का घोडा पार न कर पाया और वही एक सैनिक ने पीछे से रानी पर एक दर्दनाक प्रहार कर दिया जिसमे उनके सर का दाहिना भाग कट गया और उनकी आँखें बाहर आ गई।

लड़कों के कपड़ों में होने के कारण कोई उन्हें पहचान न सका और उन्हें फ़ौरन ही बाबा गंगादास(Baba Gangadas) की कुटिया में ले जाया गया जहा उन्होंने दम तोड़ दिया। रानी की अंतिम इच्छा थी की उनका शव अंग्रेज़ी सैनिक छू भी ना पाए।

इस कारण 18 जून, 1857 को बाबा की कुटिया जहाँ वह थी वही चिता बनाकर उनका अंतिम संस्कार किया गया।

लक्ष्मीबाई ने 25 साल की उम्र में यह साबित कर दिया था की शस्त्र और शास्त्र दोनों ही क्षेत्र में वह बेहद बुद्धिमान व परिपूर्ण थी। उन्होंने अपने अच्छे सेनापति व कुशल प्रशासक होने का भी सबूत दे दिया था। उनके साथी क्या दुश्मन भी उनके साहस और मज़बूती की प्रशंसा करते थे।

ह्यूरोज जिसने लक्ष्मीबाई को हर बार मारने की कोशिश की और 2 बार उनसे युद्ध भी किया, का कहना था की उन्होंने जितने भी विरोधियों का सामना किया उन सब में सबसे ज़्यादा खतरनाक रानी लक्ष्मीबाई ही थी जिन्हें हराना उनके लिए कठिन था।

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